मुकेश कुमार झा
मेरे पास एक धांसू आइडिया है। चाहे तो सरकार या फिल्म वाले इस पर गौर फरमा सकते हैं। फिल्म का नाम-महंगाई- डायरेक्टर और प्रोड्यूसर ---नायक और खलनायक के बारे में फिल्म बनाने वाले मुझसे बेहतर सोच सकते हैं। फिल्म का कुछ दृश्य का फिल्माकंन यों हो सकता है। नायक दिन भर भूखा है। पैसे तो हैं लेकिन इतना नहीं है कि वह खा सकता है। लेकिन वह फिल्म का नायक है इसलिये जनता की प्रेरणास्त्रोत बन सकता है। एक और दो दिन के बाद नायक के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही है। जुबान लरखड़ाने लगी है। लेकिन तेबर कम नहीं है। जो नायिका पहले उसे प्यार से देखती थी, आज उसके सूखे बाल और सूखे गाल को देखकर कन्नी काटने के मुड में है। नायिका कुछ देर के लिये ख्याबों की दुनिया में जाकर पुराने दिनों को याद कर रही है।
इसी याद के दरम्यान डायरेक्टर अतीत और वर्तमान की महंगाई की तुलना फिल्म में दृश्य के सहारे कर सकते हैं। नायक की बढ़ती भूख और बेबसी ने उसे बगावत पर ला खड़ा किया है। बगाबत से फिल्म में जान आ सकती है। हाफ टाइम से कुछ पहले प्रमुख खाद्ध पदार्थ के वर्तमान और अतीत के मूल्य को दिखाकर, जनता से ओपिनियन ली जा सकती है। चाहे तो सरकार की पॉलिसी की बखिया भी जनता उतार सकती है। लाइट, कैमरा और एक्शन के साथ नायक को लाया जा सकता है जो खुद भूखा होकर भूखे लोगों के लिये एक नयी मिसाल कायम कर सकता है। लेकिन बगाबत पर उतरे नायक जब अपनी आवाज़ बुलंद करता है, ठीक उसी समय डायरेक्टर महोदय खलनायक की इंट्री करा सकते हैं। चमाचम गाड़ी से उतरा खलनायक,नायक को हर बॉलीवुड फिल्म की भांति फब्तियां कस रहा है। लेकिन यहां पर ढिशुम-ढिशुम दृश्य के साथ साउंड न डाला जाय यानि sound को Mute कर दिया जाय तो फिल्म की सेहत के साथ नायक की सेहत के लिये ज्यादा बेहतर होगा। नायक बेबस है, लाचार है और इस मौके पर खून जलाने के लिये डायरेक्टर चाहे तो प्यार को बेवफा साबित करने के लिये नायिका को खलनायक के साथ कार पर घूमते हुये भी देखा सकते हैं।
इस सीन में भावना की प्रवाह महंगाई की प्रवाह भले ही थोड़ी तेज हो लेकिन महंगाई की जय-जय वाली गीत से खलनायक की खलनायिकी में जान डाली जा सकती है। अब में डायरेक्टर को थोड़ी देर के लिये राजनीति की दुनिया में फिल्म को ले जाने की सलाह दूंगा ताकि वह जनता और नायक की भावना का सम्मान कर सकें। कुछ हकीकत को यों दिखाया जाय कि जनता सच्चाई के रूप में महंगाई को स्वीकार करें लेकिन बरगालने का यह मामला थोड़ी पेंचदगी में उलझ सकता है, इसलिये बेहतर यह है कि नायक को भरपूर मौका दिया जाय कि हकीकत को डंक मार कर जनता के सामने लाये। ऐसा करने पर सभी फिल्मों की भांति इस फिल्म के नायक का टीआरपी बढ़ सकती है। नायक की लोकप्रियता में चार-चांद लग चुका है। चुनाव में जनता ने उसे सर आंखों पर बैठा दिया है। उसकी जीत के साथ वह भी अब आम से खास बन चुका है। अब नायिका को अपनी गलती का अहसास हो रहा है। वह अपने प्यार को याद कर रही है। इस सीन के फिल्मांकन यदि नायिका के साथ नायक भी हो तो बेकार गीतों पर भी जनता सिटी बजा सकती है। गीत खत्म होते ही खलनायक को अपनी करनी की सजा को चुनाव के जीत या हार से बेहतर ढंग से पेश किया जा सकता है। जनता का लोकप्रिय हो चला नायक असली रूप में आ गया है। वह अब प्यार और सम्मान पा चुका है। भूल गया है, वह अपनी अतीत को वर्तमान में,जब फिर से कोई नयी बात यानि महंगाई बढ़ेगी तो फिर से एक नायक पैदा हो गया जो नायक की भूमिका में खलनायक भी हो सकता है। जिस प्रकार से क्रमश: महंगाई बढ़ती जा रही है, ठीक उसी प्रकार से फिल्म के कई सिक्वल भी बनाये जा सकते हैं।
मेरे पास एक धांसू आइडिया है। चाहे तो सरकार या फिल्म वाले इस पर गौर फरमा सकते हैं। फिल्म का नाम-महंगाई- डायरेक्टर और प्रोड्यूसर ---नायक और खलनायक के बारे में फिल्म बनाने वाले मुझसे बेहतर सोच सकते हैं। फिल्म का कुछ दृश्य का फिल्माकंन यों हो सकता है। नायक दिन भर भूखा है। पैसे तो हैं लेकिन इतना नहीं है कि वह खा सकता है। लेकिन वह फिल्म का नायक है इसलिये जनता की प्रेरणास्त्रोत बन सकता है। एक और दो दिन के बाद नायक के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही है। जुबान लरखड़ाने लगी है। लेकिन तेबर कम नहीं है। जो नायिका पहले उसे प्यार से देखती थी, आज उसके सूखे बाल और सूखे गाल को देखकर कन्नी काटने के मुड में है। नायिका कुछ देर के लिये ख्याबों की दुनिया में जाकर पुराने दिनों को याद कर रही है।
इसी याद के दरम्यान डायरेक्टर अतीत और वर्तमान की महंगाई की तुलना फिल्म में दृश्य के सहारे कर सकते हैं। नायक की बढ़ती भूख और बेबसी ने उसे बगावत पर ला खड़ा किया है। बगाबत से फिल्म में जान आ सकती है। हाफ टाइम से कुछ पहले प्रमुख खाद्ध पदार्थ के वर्तमान और अतीत के मूल्य को दिखाकर, जनता से ओपिनियन ली जा सकती है। चाहे तो सरकार की पॉलिसी की बखिया भी जनता उतार सकती है। लाइट, कैमरा और एक्शन के साथ नायक को लाया जा सकता है जो खुद भूखा होकर भूखे लोगों के लिये एक नयी मिसाल कायम कर सकता है। लेकिन बगाबत पर उतरे नायक जब अपनी आवाज़ बुलंद करता है, ठीक उसी समय डायरेक्टर महोदय खलनायक की इंट्री करा सकते हैं। चमाचम गाड़ी से उतरा खलनायक,नायक को हर बॉलीवुड फिल्म की भांति फब्तियां कस रहा है। लेकिन यहां पर ढिशुम-ढिशुम दृश्य के साथ साउंड न डाला जाय यानि sound को Mute कर दिया जाय तो फिल्म की सेहत के साथ नायक की सेहत के लिये ज्यादा बेहतर होगा। नायक बेबस है, लाचार है और इस मौके पर खून जलाने के लिये डायरेक्टर चाहे तो प्यार को बेवफा साबित करने के लिये नायिका को खलनायक के साथ कार पर घूमते हुये भी देखा सकते हैं।
इस सीन में भावना की प्रवाह महंगाई की प्रवाह भले ही थोड़ी तेज हो लेकिन महंगाई की जय-जय वाली गीत से खलनायक की खलनायिकी में जान डाली जा सकती है। अब में डायरेक्टर को थोड़ी देर के लिये राजनीति की दुनिया में फिल्म को ले जाने की सलाह दूंगा ताकि वह जनता और नायक की भावना का सम्मान कर सकें। कुछ हकीकत को यों दिखाया जाय कि जनता सच्चाई के रूप में महंगाई को स्वीकार करें लेकिन बरगालने का यह मामला थोड़ी पेंचदगी में उलझ सकता है, इसलिये बेहतर यह है कि नायक को भरपूर मौका दिया जाय कि हकीकत को डंक मार कर जनता के सामने लाये। ऐसा करने पर सभी फिल्मों की भांति इस फिल्म के नायक का टीआरपी बढ़ सकती है। नायक की लोकप्रियता में चार-चांद लग चुका है। चुनाव में जनता ने उसे सर आंखों पर बैठा दिया है। उसकी जीत के साथ वह भी अब आम से खास बन चुका है। अब नायिका को अपनी गलती का अहसास हो रहा है। वह अपने प्यार को याद कर रही है। इस सीन के फिल्मांकन यदि नायिका के साथ नायक भी हो तो बेकार गीतों पर भी जनता सिटी बजा सकती है। गीत खत्म होते ही खलनायक को अपनी करनी की सजा को चुनाव के जीत या हार से बेहतर ढंग से पेश किया जा सकता है। जनता का लोकप्रिय हो चला नायक असली रूप में आ गया है। वह अब प्यार और सम्मान पा चुका है। भूल गया है, वह अपनी अतीत को वर्तमान में,जब फिर से कोई नयी बात यानि महंगाई बढ़ेगी तो फिर से एक नायक पैदा हो गया जो नायक की भूमिका में खलनायक भी हो सकता है। जिस प्रकार से क्रमश: महंगाई बढ़ती जा रही है, ठीक उसी प्रकार से फिल्म के कई सिक्वल भी बनाये जा सकते हैं।
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